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बदलते हुए मौसम का मिजाज / भगवत रावत

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जब से भूमंडल नहीं रहा भौगोलिक
चढ़ गया है भूमंडलीकरण का बुखार
जब से गायब होना शुरू हुई उदारता
फैला प्लेग की तरह
उदारतावाद
जब से उजड़ गए गाँवों, कस्बों और शहरों के खुले मैदानों के बाजार
घर-घर में घुस गया नकाबपोश
बाजारवाद
यह अकारण नहीं कि तभी से प्रकृति ने भी
ताक पर रख कर अपने नियम-धरम
बदल दिए हैं अपने आचार-विचार
अब यही देखिए कि पता ही नहीं लगता
कि खुश या नाराज हैं ये बादल
जो शेयर दलालों के उछाले गए सेंसेक्स की तरह
बरसे हैं मूसलाधार इस साल
जैसे कोई अकूत धनवान
इस तरह मारे अपनी दौलत की मार
कि भूखे भिखारियों को किसी एक दिन
जबरदस्ती ठूँस ठूँस कर तब तक खिलाए सारे पकवान
जब तक वे खा-खा कर मर न जाएँ
जैसे कोई जल्लाद केवल अपने अभ्यास के लिए
बेवजह मातहतों पर तब तक बरसाए
कोड़े पर कोड़े लगातार
जब तक स्वयं थक-हार कर सो न जाए
दूसरी तरफ देखिए यह दृश्य
कि ऐसी बरसात में, नशे में झूमती,
अपनी ही खुमारी में खड़ी हैं अविचलित
ऊँची-नीची पहाड़ियाँ
स्थिति-प्रज्ञों की तरह अपने ही दंभ में खड़े हैं
ऊँचे-ऊँचे उठते मकान
और दुख से भी ज्यादा दुख में
डूबी हुईं है सारी की सारी निचली बस्तियाँ
बह गए जिनके सारे छान-छप्पर-घर-बार
इन्हें ही मरना है, हवा से, पानी से, आग से
बदलते हुए मौसम के मिजाज से
कभी प्यास से, कभी डूब कर
कभी गैस से
कभी आग से।