भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

साथ / मनोज कुमार झा

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:37, 26 जून 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनोज कुमार झा }} {{KKCatKavita}} <poem> क्या सच म...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क्या सच में ताक रही थी मुझको
चेहरा क्या उसी रंग में था
       उस दिन जब झाड़ी में छुप गई थी गिलहरी
पुतलियाँ क्या वैसे ही घूम रही थी
ढ़ूँढ़ती है जैसे गुब्बारे का मुँह

कोई खास बात नहीं
वैसे ही पूछ रहा था
बाहर बहुत तेज धूप थी
       घूम रहा था सिर
       समझो गिर ही पड़ा था सड़क पर
लिया एक फाँक तरबूज तो
बहुत याद आए तुम सब।