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इस भाषा में / मनोज कुमार झा
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जो स्कूल में टिक न सका
उस बच्चे के उकेरे अक्षर सा मेरा प्रेम-निवेदन
चाहो तो समझ सकती हो
मगर चाहो क्योंकर
इतनी चीजें हैं इस दुनिया में
उसकी चाह को भी शायद प्रेम कहते हैं
इस भाषा से तुम उलझोगी क्योंकर
तुम्हारी अँगुलियाँ कोमल हैं और ये अक्षर नुकीले पत्थर
तुम अपनी अँगुलियाँ सँभालो, मैं अक्षर उकेरता हूँ
कभी आना इस पार जब कोई राह फूटे
देखना तब इन शब्दों की नाभि में कितनी सुगंध है