भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मक्खियाँ / महेश वर्मा

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:38, 26 जून 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेश वर्मा }} {{KKCatKavita}} <poem> अगर हमें फिर...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अगर हमें फिर से न पढ़नी पड़तीं वे किताबें,
बच्चों को पढ़ाने की खातिर,
तो अब तक हम भूल ही चुके होते
उन गंदी जगहों के विवरण
जहाँ से मक्खियों के बैठकर
आने का भय दिखाते हैं -
सदा स्वस्थ लोगों के
शाश्वत हँसते चित्र।
वे चाहें तो हमें इतना परेशान कर दें
कि थोड़ी देर को छोड़कर वह ज़रूरी काम
हम सोचने लगे
नुक्कड़ से चाय-सिगरेट पीकर आने के बारे में।
और जहाँ -
सोचना भी मुश्किल गुड़, जलेबी,
नाली और घूरे के बारे में.
मुस्कराते और गुरगुराते एयर कंडीशनरों वाले
काँच से घिरे गंभीर दोस्त के कमरे में -
उन्हें देखा जा सकता है उड़ते
उदास सहजता की पुरानी उड़ान में।
और उनके दिखने पर थोड़ी अतिरिक्त जो
दोस्त की प्रतिक्रिया है - उससे आती हँसी को -
ढाल देते हम
उसके नौजवान दिखने की खुशामद में।