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बेटी है कि माँ है घास / रंजना जायसवाल

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माँ धरती की नंगी देह को
हरे मखमल से
ढाँक रही है
बेटी घास
हरी हो गयी है
धरती की सूखी देह
बेटी के शीतल,सुखद,कोमल
स्पर्श से
जानती है घास
कि माँ पर आधिपत्य है जिनका
नहीं भाता उन्हें माँ-बेटी का इतना प्यार
वे कभी भी सोहवाकर,चरवाकर
या मशीन चलवाकर
खींच लेंगे उनका सारा मखमल
वह भी सूख जायेगी
माँ से बिछड़कर
फिर भी मचल-मचलकर चिपक रही है
माँ की छाती से घास
माँ से ही सिखा है उसने माँ बनना
उसकी स्नेहिल गोद में भी
खेलते हैं बच्चे बिना चोट खाए
युवा प्रेम करते हैं निश्चिंत
सखी मानकर उसे
बूढ़े दुःख-दर्द बाँटते हैं
हमदर्द की तरह
फिर भी धरती की छाती से
चिपकती है वह बेटी की तरह |