Last modified on 28 जून 2013, at 09:47

प्रेम कविताएँ / रंजना जायसवाल

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:47, 28 जून 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना जायसवाल }} {{KKCatKavita}} <poem> 1 मन की गु...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

1
मन की गुनगुनी आँच पर
पकते हैं कच्चे हरे शब्द
बनती हैं तब प्रेम की
सब्ज -नील कविताएँ
2
अपने ही अंदर से फूटती
कस्तूरी-गंध से विकल होकर
भागी थी तुम तक किन्तु
तृष्णा से विकल हो
खत्म हो गयी अंततः
क्योंकि वहाँ सिर्फ मरीचिका थी
तुम न थे
3
तुम्हारी तलाश में कई बार गिरी हूँ
दलदल में और हर बार जाने कैसे
बच निकली हूँ कमल -सा
मन लिए
4
जेठ की चिलचिलाती धूप में
नंगे सिर थी मैं और
हवा पर सवार
बादल की छाँह से तुम
भागते रहे निरंतर
तुम्हारे ठहरने की उम्मीद में
मैं भी भागती रही तुम्हारे पीछे
और पिछडती रही हर बार
5
हरी -भरी है मेरे मन की धरती
हालाँकि दूर हैं सूरज चाँद
तारे आकाश बादल और ..
6
प्रेम करना ईमानदार हो जाना है
यथार्थ से स्वप्न तक ..समष्टि तक
फैल जाना है त्रिकाल तक
विलीन कर लेना है
त्रिकाल को भी ... प्रेम में ... अपने
जी लेना है अपने
प्रेमावलंब में सारी कायनात को
पहली बार देखना है खुद को
खोजना है खुद से बाहर
मन को छूता है कोई पहली बार
बज उठती है देह की वीणा
सजग हो उठता है मन-प्राण
चीजों के चर-अचर जीव के ... जन के
मन के करुण स्नेहिल तल तक
छूता है कोई जब पहली बार
सुंदर हो जाती है हर चीज
आत्मा तक भर उठती है सुंदरता
अगोरती है आत्मा अगोरती है देह
देखे कोई नजर हर पल हमें