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भर्तृहरि नियति / रंजना जायसवाल
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लगातार सूर्य के चक्कर काटती
धरती सोचा है कभी
सीलन भरे अँधेरे में गुमनाम
तुम्हें धारण करता है कोई हजार सिर-माथे पर
ढोता है तुम्हारी ममता का अतिरिक्त भार
निमिष मात्र की जिसकी विचलन
खतरा है तुम्हारे अस्तित्व के लिए
उसके स्पर्शों की सुरक्षा में हरी-भरी तुम
क्यों नहीं समझती उसका दुःख ?
सोचो धरती किसका प्रेम है सच्चा
तुम्हारा या शेषनाग का!
प्रेम की यह कैसी भर्तृहरि नियति है
कि जिसे चाहो वही चाहता है दूसरे को