भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हैरतों के सिल-सिले / अहमद नदीम क़ासमी
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:53, 14 जून 2008 का अवतरण
हैरतों के सिल-सिले सोज़-ए-निहां तक आ गए
हम तो दिल तक चाहते थे तुम तो जाँ तक आ गए
ज़ुल्फ़ में ख़ुश्बू न थी या रंग आरिज़ में न था
आप किस की जुस्तजू में गुलिस्तां तक आ गए
ख़ुद तुम्हें चाक-ए-गिरेबां का शऊर आ जाएगा
तुम वहां तक आ तो जाओ हम जहां तक आ गए
उन की पलकों पे सितारे अपने होंठों पे हंसी
कि़स्सा-ए-ग़म कहते कहते हम यहां तक आ गए