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ओस बिंदु सम ढरके / बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'

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हम तो ओस-बिंदु सम ढरके
आए इस जड़ता में चेतन तरल रूप कुछ धर के!

क्या जाने किसने मनमानी कर हमको बरसाया
क्या जाने क्यों हमको इस भव-मरुथल में सरसाया
बाँध हमें जड़ता बंधन में किसने यों तरसाया
कौन खिलाड़ी हमको सीमा-बंधन दे हरषाया
किसका था आदेश कि उतरे हम नभ से झर-झरके?

आज वाष्प वन उड़ जाने की साध हिये उठ आई
मन पंछी ने पंख तौलने की रट आज लगाई
क्या इस अनाहूत ने आमंत्रण की ध्वनि सुन पाई
अथवा आज प्रयाण-काल की नव शंख-ध्वनि छाई

मन पंछी ने पंख तौलने की रट आज लगाई
क्या इस अनाहूत ने आमंत्रण की ध्वनि सुन पाई
अथवा आज प्रयाण-काल की नव शंख-ध्वनि छाई
लगता है मानो जागे हैं स्मरण आज नंबर के।