भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पर्दा उठना था कि... / निश्तर ख़ानक़ाही
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:15, 3 जुलाई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=निश्तर ख़ानक़ाही }} {{KKCatGhazal}} <poem> पर्द...' के साथ नया पन्ना बनाया)
पर्दा उठना था कि हिद्दत* धूप की मजर में थी
हम थे और उम्मीद की बेचारगी* मंज़र में थी
अपनी ख़स्ता चाहतें जब लेके हम रूख़्सत हुए
ख़ुश्क पत्तों से हवा की दोस्ती मंज़र में थी
टूटकर क़ौसे-क़ज़ह* से क़हक़हा करते थे रंग
इस उफ़ुक़* से उस उफ़ुक़ तक बेबसी मंज़र में थी
बुझ रहा था दिन की पेशानी पे सूरज का जलाल
तीरगी* के बीच कुछ-कुछ रोशनी मंज़र में थी
बह रही थी दूध-सी इक शय जटाओं से मेरी
रात पस-मंज़र* की सारी चाँदनी मंज़र में थी
1- हिद्दत--गर्मी
2- बेचारगी--बेबसी
3- क़ौसे-क़ज़ह--इंद्र धनुष
4- उफ़ुक़--क्षितिज
5- तीरगी--अंधकार
6- पस-मंज़र--पृष्ठभूमि