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आकांक्षा / अनिता भारती

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सुनो,
नहीं चाहिए हमें
तुम्हारी कृपादृष्टि
नहीं चाहिए
तुम्हारा कामधेनु वरदहस्त
नहीं चाहिए
तुम्हारे शब्द-तमगे
नहीं चाहिए
तुम्हारी प्रशंसात्मक लोलुप नज़रें
नहीं चाहिए
तुम्हारे झुर्रीदार कांपते हाथों का
लिजलिजा स्नेह
अब हमें नहीं करनी
किसी की जी- हजूरी
हम हैं खुद गढ़ी औरतें

हम लड़ेंगे गिरेंगे
लड़खड़ाएँगे
उठेंगे चलेंगे
और अपने ही मजबूत पैरों से
नाप लेंगे दुनिया
हमें चाहिए खुला बादलरहित
साफ आसमान
जो सिर्फ़ अपना हो।