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आँगन में बैठी माँ / विकि आर्य

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आँगन में बैठी माँ
घर डाल रही है!
धूप नर्म गिलहरी सी
उसके साथ - साथ
आगे - पीछे फुदकती है
माँ घर बुन रही हैं...!
साथ-साथ हवायें भी
घोंसला बनायेंगी, यहीं
यहीं चहचहायेंगी ऋतुयें!
माँ घर बुन रही हैं
आकार ले रहा है घर
यह एक दो तरफा स्वेटर है
एक तरफ माँ,
एक तरफ घर !
घर माँ में समा गया है,
माँ घर में...!
माँ ने जीवन पूंजी देकर
बुना है ये घर!
जीवन भर घर की गर्माहट
वैसी ही रही, वैसी ही!