भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रीतते हुए / उमा अर्पिता
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:49, 17 जुलाई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उमा अर्पिता |संग्रह=कुछ सच कुछ सप...' के साथ नया पन्ना बनाया)
मेरे दोनों हाथों की
मुट्ठियाँ बंद थीं…
एक में थे अनगिनत
रंगीन सपने
और दूसरी में
आशा और विश्वास के संगम का
निर्मल पानी, जिन्हें सहेजे-सहेजे
पग-पग धरती
धीमे-धीमे चलती रही थी मैं...
लेकिन अचानक उठा था
न जाने कैसा तूफान, कि अनायास ही
खुल गई थीं मेरी मुट्ठियाँ
और बिखर गया था
एक-एक सपना
रीत गया था उँगलियों के पोरों से
आशा और विश्वास का पानी भी...
अब मेरी हथेलियों में चुभती है
उदासी, निराशा और अविश्वास की रेत
तुम्हीं कहो दोस्त--
कब तक सहनी होगी मुझे यह चुभन...?