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घेराव / उमा अर्पिता

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दुखों की बाढ़ ने
चारों ओर से
घेराव डाल लिया है…
विवशताओं के कैक्टस
दिन-प्रतिदिन
फैलते जा रहे हैं...!

आम आदमी को
कैक्टस की नोक पर
जीने को विवश
कर दिया गया है ।
सभ्यता का दावा है, कि
कोई तुम्हें यहाँ से
निकालने
नहीं आएगा…
अपने हाथों को अपने ही
लहू से धोकर
साफ करना होगा,
सहलाना होगा ।

चिंताओं के बोझ से
दोहरी हो चुकी कमर को
सीधा कर पाना
कुत्ते की पूँछ को
सीधा करने जैसा
लगने लगा है, पर
कभी तो--
विद्रोह की वाणी का लहू
छाती में से
चिंगारी बनकर फूटेगा
और देखते-देखते
अपने चारों ओर के
घेराव को जलाकर
राख कर देगा...!