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फासले / उमा अर्पिता

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चाहती तो हूँ कि
तमाम फासले मैं ही तय कर लूँ, और
बना रहने दूँ तेरा मान-अभिमान
पर, वो फासले, जो
अकेले तय किए जाते हैं
कभी मिटते नहीं/यथावत बने रहते हैं...
फासले तय करने पर भी
उनका यथावत बने रहना
पैरों के छालों से
कहीं अधिक दुखदायी होता है
इसलिए मेरे दोस्त, कुछ कदम
तुम्हें भी बढ़ना होगा...!