भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

असंभव / उमा अर्पिता

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:33, 17 जुलाई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उमा अर्पिता |संग्रह=कुछ सच कुछ सप...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खामोशी के जंगल में
घुटकर रह गई हैं
साँसें मेरी…
किसी ने अपनेपन की आड़ में
बड़ी होशियारी से मेरे होंठों से
हँसी छीन
चिपका दी हैं खामोशियाँ
और भर दी है घुटन
मेरे अंतस में…
कैक्टस हो गए चाहतों के काँटे
अब मुझे चुभने लगे हैं...!
मेरी आँखों से टपके लहू की बूँदें
मेरे हाथ की रेखाओं में
आज भी उतनी ही ताजा हैं, पर
चाह कर भी
चाहतों का गला घोंटना
मुझसे नहीं हो पाया!