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रात ढल गई / उमा अर्पिता

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मेरी स्मृतियों की
मुँडेर पर/हौले-हौले
उतर रही है धूप
तुम्हारी यादों की…

जानते हो कल-
कल का हर एक पल
सुबक-सुबक कर रोया था…
तुम्हारी स्मृतियों की
सुनहरे पाँवों वाली धूप
गहरा गई थी
मेरी व्यथा को
सायास
चेहरे पर उभार गई थी
अशरीरी मेरे दर्द
जिनके नक्श तीखे थे,
बनकर मिटे हैं
मिटकर बने हैं,
बन रहे हैं…
आज अनायास
हवा का एक मादक झोंका
तुम्हारा संदेश दे गया
लगता है-
रात ढल गई
आने वाली
सुबह की खातिर...!