भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ये आरजू थी तुझे गल के रू-ब-रू करते / हैदर अली 'आतिश'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:04, 25 जुलाई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हैदर अली 'आतिश' }} {{KKCatGhazal}} <poem> ये आरजू थ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये आरजू थी तुझे गल के रू-ब-रू करते
हम और बुलबुल-ए-बे-ताब गुफ़्तुगू करते

पयाम्बर न मयस्सर हुआ तो खूब हुआ
ज़बान-ए-ग़ैर से क्या शरह-ए-आरजू करते

मिरी तरह से मह ओ मेहर भी हैं आवारा
किसी हबीब की ये भी हैं जुस्तुजू करते

हमेशा रंग-ए-ज़माना बदलता रहता है
सफ़ेद रंग हैं आख़िर सियाह मू करते

हमेशा मैंने गिरेबाँ को चाक चाक किया
तमाम उम्र रफ़ू-गर रहे रफ़ू करते

ये काबे से नहीं बे-वजह निस्बत-ए-रूख-ए-यार
ये बे-सबब नहीं मुर्दे की क़िबला-रू करते

न पूछ आलम-ए-बरगश्ता-तर्ला ‘आतिश’
बरसती आग जो बाराँ की आरजू करते