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ये आरजू थी तुझे गल के रू-ब-रू करते / हैदर अली 'आतिश'
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ये आरजू थी तुझे गल के रू-ब-रू करते
हम और बुलबुल-ए-बे-ताब गुफ़्तुगू करते
पयाम्बर न मयस्सर हुआ तो खूब हुआ
ज़बान-ए-ग़ैर से क्या शरह-ए-आरजू करते
मिरी तरह से मह ओ मेहर भी हैं आवारा
किसी हबीब की ये भी हैं जुस्तुजू करते
हमेशा रंग-ए-ज़माना बदलता रहता है
सफ़ेद रंग हैं आख़िर सियाह मू करते
हमेशा मैंने गिरेबाँ को चाक चाक किया
तमाम उम्र रफ़ू-गर रहे रफ़ू करते
ये काबे से नहीं बे-वजह निस्बत-ए-रूख-ए-यार
ये बे-सबब नहीं मुर्दे की क़िबला-रू करते
न पूछ आलम-ए-बरगश्ता-तर्ला ‘आतिश’
बरसती आग जो बाराँ की आरजू करते