भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सभका भीतर में निवास बा तहार / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:10, 28 जुलाई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रवीन्द्रनाथ ठाकुर |अनुवादक=सिपा...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सभका भीतर में निवास बा तहार
सभका अंतर में आवास बा तहार
सभका अंतर के रहवइया
हे अंतरतर,
हमरा अंतर के विकसित कर द
हमरा भावभूमि के हरिअरा द
हमरा भीतर के निर्मल बना द
हमरा भीतर के उज्जवल बना द
हमरा भीतर के सुंदर बना द
हमरा भीतर के जगा द
हमरा भीतर के तैयार करा द
हमरा भीतर के निडर बना द
हमरा भीतर के मंगल कामना से भर द
हमरा भीतर से आलस हटा द
हमरा भीतर से संदेह हटा द
हमरा अंतर के विकसित कर द
हमरा भावभूमि के हरिअरा द
हमरा हृदय के सभका से जोड़ द
बंधन मुक्त बना द हमरा के
अखिल विश्व से हमरा अपनापन हो जाय
एह राह के हर रोड़ा चकनाचूर हो जाय
हृदय के हर गाँठ खोल द
हर बंधन तूर द
मुक्त बना द हमरा के
हमरा हर काम में तहार छंद छलके लागे
तहार गीत बोले लागे
भर द आपन हुलास भरल गीत, हमरा हर काम में
तहरा चरन कमल में, हमार चंचल चित्त
थिर हो जाय।
अइसन लगन लागे
जे छोड़वलो से ना छूटे।।
मगन बना द, मस्त बना द
कर द आनंदित
आनंदित, आनंदित।।