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हे प्रभु, अबकी बार एह जीवन में / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

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हे प्रभु
अबकी बार एह जीवन में
अगर तहार दरसन ना भइल
त ई बात
हरदम हमरा मन में
काँट लेखा गड़त रही
जे तहार दरसन ना भइल।

ई बात हमरा भोर ना पड़ी
सूतत-जगत, उठत-बइठत
हरदम कचोटत रही भीतर
जे दरसन ना भइल।।

एह दुनिया का बाजार में
हमार जतने दिन कट गइल
से कट गइल,
ना जानीं जे कतना बेर
हमार दूनू हाथ, दूनू मुट्ठी,
अपार धन संपत्ति से
भर-भर गइल।

तबो हमरा भोर ना पड़ल
जे हमरा कुछ ना मिलल
कुछ ना मिलल।

जब तहार दरसने ना भइल
त का भइल?
सूतत-जगत उठत बइठत
हरदम कचोटत रही भीतर
जे दरसन ना भइल।

जब कभी हम अलसा के
राह के कगरी बइठ गइलीं

आराम खातिर बिछौना बिछा के
सूते के तइयारी कइलीं
त तुरत याद आइल
जे अबही त,
समूचा रास्ता बाकिए बा।

मंजिल अबहीं दूरे दूर बा
हमरा एको छन भोर ना पड़ल
जे तहार दरसन ना भइल त कुछ ना भइल

सूतत-जगत, उठत-बइठत
हरदम कचोटत रहेला भीतर
जे दरसन ना भइल।

हमरा घरे कतनो ठहाका पड़े
कतनो बंशी बाजे
कतनो सजधज से घर चमकावल जाय
बाकिर जइसहीं याद आवेला
जे तूं ना अइबऽ
तूं ना अइबऽ एह घरे
त हमार दिल बइठ जाला

वेदना बढ़ जाला
जब तहार दरसने ना होई
त का होई?
सूतत-जगत, उठत-बइठत
हर दम कचोटत रहेला भीतर
जे दरसन ना भइल।