भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शुक्र को शिकवा-ए-जफ़ा समझे / 'शोला' अलीगढ़ी

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:28, 29 जुलाई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='शोला' अलीगढ़ी }} {{KKCatGhazal}} <poem> शुक्र को ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शुक्र को शिकवा-ए-जफ़ा समझे
क्या कहा मैं ने आप क्या समझे

हम तिरी बात नासेहा समझे
कोई समझै हुए को क्या समझे

मरज़ुल-मौत को शिफ़ा समझे
दर्द को जान की दवा समझे

इस तड़पने को मुद्दआ समझे
दिल-ए-बद-ख़ू तुझे ख़ुदा समझे

कर दिए इक जहाँ के बुत-ए-ख़ुद-बीं
ऐ सिंकदर तुझे ख़ुदा समझे

‘शोला’ कल ही तो मय-कदे में थे
आज तुम किसी को पारसा समझे