भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छोड़ी हुई औरत / शर्मिष्ठा पाण्डेय

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:32, 3 अगस्त 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शर्मिष्ठा पाण्डेय }} {{KKCatKavita}} <poem> तिर...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तिरस्कृत,अभिशप्त
स्वयं से परित्यक्त
बौराई सी
निष्पंद ह्रदय लिए
सूखे अल्तमाश के पत्तों सरीखी
मांड निकले भात सी
स्वादहीन,निरर्थक
जो मिटा सकती
केवल क्षुधा
लेकिन,कहाँ
तृप्त कर पाती
आवश्यकता ज़रूरी तत्वों की
बासी श्रृंगार धरे
रससिक्त होंठों पर प्यास
कहाँ खिल पाती
उसके गजरे की
कोमल कलियाँ
रूठ जाता है वसंत उससे
नहीं मिलता
चुटकी भर अपनापन
मिलती है,शपा
केवल सलाह
अवहेलना, और
दयनीय दृष्टि के पीछे
छिपी गिद्ध चेष्टा
विलीन हो जाता है
कहीं आत्मविश्वास
घूमती है धरती
उसके इर्द-गिर्द
फटने को आतुर
क्यूंकि,उसे समा जाना है
एक दिन
नहीं होता उसके पास
वापस लौट जाने का विकल्प
जीती है
एक टुकड़ा आसमान तले
आखिर को वो होती है
एक छोड़ी हुई औरत
'रामायण साक्षी है'