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सुनो कुशिनारा / शर्मिष्ठा पाण्डेय

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सुनते हो कुशिनारा
तुमने जान लिया तथ्यों को
और, हो गए 'तथागत'
त्याग तुमने भी किया
मैंने भी किया
एक ही गाँव
एक ही भूमि
फिर, क्यूँ तुम्हें मिला
"निर्वाण"
और मुझे
"निर्वासन"---
जवाब दोगे क्या
बोलो ! कहोगे कुछ
शायद नहीं कहोगे
जवाब देना ज़रूरी जो नहीं
पुरुष ही ठहरे आखिर
मैं ही कहती हूँ
तुमने चुना 'लम्बा रास्ता'
कठिनाइयों से भरा
चलते ही रहे
अंततः मिल ही गया ना
तुम्हारा अभीष्ट
और मैं
मैंने चुना
गोल, घुमावदार मार्ग
जिसे पूरा करना था
केवल 'सात फेरों में'
जानते हो कुशिनारा
लम्बे रास्तों में आते
बड़े-बड़े पेड़
पत्थर, नदियाँ, पहाड़
जानवर, एकांत
तुमने शरण ली पेड़ों तले
साफ़ किये पत्थर
लांघी नदियाँ, पहाड़
बचे रहे जानवरों से
बना लिया मित्र उन्हें
अनुभव किया एकांत का
और, मुझे बनना पड़ा
स्वयं, एक छायादार पेड़
जिस पर लगे रसदार फल
तब खाए पत्थर
बार-बार पवित्रता की दुहाई ले
लगाई नदिया में डुबकी
औरजानवर
उनका सिर्फ जंगलों में पाया जाना
ज़रूरी तो नहीं
गिरती रही बार-बार
आत्मसम्मान के पहाड़ों की उंचाई से
और, सहलाती रही घाव
एकांत में
सच, कुशिनारा
कितना कठिन है ना
महात्म्य पा लेना
बोधिसत्व लेना
और, हो जाना
"बुद्ध"
मुझमें कहाँ इतना साहस