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तहरा से मिले खातिर / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’
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तहरा से मिले खातिर
हम अकेले बाहर भइलीं
बाकिर ना जानीं जे के
सुनसान अंहार में
हमरा संगे लागल, चले लागल!
ओके दूर हटावे खातिर
तरह-तरह के उपय कइली।
कबो टेढ़-मेढ़ रह धइली
कबो एने-ओने खिसक गइली
बुझाइल कि बलाय टलल
बाकिर तकलीं त फेनू हाजिर।
ओकरा में अइसन विचित्र चंचलता बा
जे ऊ धरती धमसावत चलेला,
हर बात में ऊ अपने बात कहे चाहेला।
ऊ त हमरे हमिता ह, हे प्रभु,
हमरे ‘हम’ ह, हमरे ‘अहं’ ह।
ओकरा कवनो गतरी लाज नइखे
ऊ निपट निर्लज्ज ह।
ओकरा संगे तहरा दुआरी
भला कइसे आईं?
ओकरा साथ आवे में
हमरा लाज लागेला।
हम त तहरा से अभिसार खातिर
अकेले बाहर निकलत रहीं।