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दिन ढलला पर / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’
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दिन ढलला पर
मरन द्वार पर आई जहिया
कवन भेंट लेके
सनमुख तूं जइबऽ तहिया?
आपन भरल प्राण ले के हम
सनमुख में धर देहेब
छूँछे हाथे क बो मरन के
हम ना लौटे देहेब।
कतना शरद-बसभेंत-रत
कतना संध्या, कतना प्रभात,
हमरा जीवन रूपी बरतन में
कतना रस बरसे दिन रात।
कतना फूलन से, फल से
बा हृदय हमार भरल-पूरल
दुख-सुख के छय वो प्रकश
से हृदय हमार भरल-पूरल
जीवन के जे जामा-पूँजी,
अतना दिन के जे संचित धन;
साज बाज सब अतना दिन के,
अतना दिन के सब आयोजन;
सब ले के सनमुख धर देहेब;
जीवन-यत्र के अभेंतिम दिन।
जहिया मरन द्वार पर आई
जीवन यात्रा के अंतिम दिन।