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ना जानीं जे कहाँ से आवेला दुःस्वप्न / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

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ना जानीं जे कहाँ से आवेला दुःस्वप्न
जे हमरा जीवन में हलचल मचा जाला।
चिहुँक-चिहुँक जगिले, रोये काँदे लागिले,
बाकिर अंत में बुझाला कि बेकारे रोइले।
कहीं कुछ ना रलऽ दुःस्वप्न त भ्रम रलऽ
हर हमेसा प्राप्त हमरा माँ के गोद रलऽ
भ्रम में बुझाला कि दोसर केहू ह
एहीं से हठात् डर लाग जाला।
बाकिर तहार हँसल देख के ज्ञान होला
पूर्ण जागरण का बाद खेल के भेद खुल जाला।
जीवन हमार ई हमरा के हरदम
सुख-दुख-भय क झूल मेभें झुलवेल।
हे परिपूरन प्रभु सनमुख भइला पर
भाग जाई भ्रम सब हलचल विला जाई।
भोर के अँजोर सब संशय मिटा जाई।।