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हमरा जीवन में जे हमेशा / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

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हमरा जीवन में जे हमेशा
आभास मात्र बन के रह गइल।
जे प्रभात का प्रकाश में भी
खुल के प्रकाशित ना भइल।
हम आज ओही अपना निधि के-
अपना जीवन का अंतिम दान में,
अपना जीवन का अंतिम गान में,
सजा-सँवर के, हे देवता
तहरा सनमुख समर्पित करब।
अपना जीवन के अंतिम भेंट का रूप में
तहरा चरनन का आगू धरब।
वाणी जेकरा के शब्दन में बान्ह के
पूर्ण रूप से बखान ना सकल।
गीत जेकरा के सुर-लय मेभें बन्ह के
पूर्ण रूप से साध ना सकल।
ऊ नित नवीन मोहन रूप
निखिल नयन से लुका के, हे प्रभु,
कवना शांत-एकभेंत-निर्जन स्थन मेभें,
चुपचाप अकेले बइठल रह गइल?
जे प्रभात के प्रकाश में भी
खुल के प्रकाशित ना भइल?
ओकरे खातिर हरदम हम
देश-देश मेभें भरमत फिरलीभें।
जीवन में जे जोड़-तोड़ ब
सब ओकरे खातिर हम कइलीं।
हमरा सब विचार आ सब काम में
हमरा जे कुछ आपन बा से सब में
हमरा नीन आ हमरा सपना में
सब में ऊ सदा विराजमान बा।
तबहूँ ऊ अकेला कइसे रह गइल?
जे प्रभात का प्रकाश में भी
खुल के प्रकाशित ना भइल?
कतना लोग कतना दिन ले
ओकरा खातिर आइल।
बाकिर सब लोग बाहरे दरवाजा से
निराश होके लवट गइल।
तबो हम अपना हृदय-गगन मेभें
इहे आस आज ले जगवले बानीं
कि तहरा से हमार परिचय होई!
-ई बात आउर केहूँ बूझ ना सके।