महफ़िल-ए-यार / शर्मिष्ठा पाण्डेय

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उनकी महफ़िल में चमक देख के नगीनों की
हम अपने हाथ का गुलाब खुद मसल बैठे

हुजूम तितलियों के देख गिर्द, उनके शपा
के, हम उम्मीद के पर अपने खुद क़तर बैठे

बड़े गुरूर से मैख्वार, उनके कुर्बत में
जो, देखा खुद के ही मेयार से उतर बैठे

उन्हें आदत है रही, महरो-महो-अंजुम की
थे नादां, लौंग का मोती भी कर नज़र बैठे

बड़ी निस्बत से मिलते बज्मे-हरीफां में वो
के, रफीकों से हम ताल्लुक कर, दर-गुज़र बैठे

उनके मकतल में बड़े फख्र से सर गैर कटे
हम अपनी आरज़ू को ही औज़ार कर बैठे

क्या जाने, वो खुदा है या के मसीहा है मुक़द्दस
यार, इंसानियत से हम हो बेखबर बैठे

उनकी जहनियत के चर्चे सुने बाजारों में
के, हम पैगामे-लहू को भी दे, एक उमर बैठे

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