भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मन अनुरागल हो सखिया / भीखा साहब

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:57, 21 अगस्त 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भीखा साहब }} {{KKCatPad}} {{KKCatBhojpuriRachna}} <poem> मन अन...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मन अनुरागल हो सखिया।।
नाहीं संगत और सौ ठक-ठक, अलख कौन बिधि लखिया
जन्म मरन अति कष्ट करम कहैं, बहुत कहाँ लगि झँखिया।।
बिनु हरि भजन को भेष लियो कहँ, दिये तिलक सिर तखिया
आतमराम सरूप जाने बिन, होहु दूध के मखिया।।
सतगुरु सब्दहिं साँचि गहो तजि झूँठ कपट मुख भखिया
बिन मिलले सुनले देखले बिन हिया करत सुर्तिं अँखिया।।
कृपा कटाच्छ करो जेहि छिन भरि कोर तनिक इक अँखिया
धन धन सो दिन पहर घरी पल जब नाम सुधा रस चखिया।।
काल कराल जंजाल डरहिंग अबिनासी की धकिया
जन भीखा पिया आपु भइल उड़ि-उड़ि गैली भरम की रखिया।।