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आरोही पचीसा / चौधरी कन्हैया प्रसाद सिंह 'आरोही'

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अनजाना राही कहे, गलत के राह।
बुद्धिमान सम्मान के, करे कबो ना चाह ॥1॥
अनभल केहू के कइल, अपने पथ के कांट।
आरोही जीवन बदे, जीवन के सुख बांट ॥2॥
अनुशासन चादर तले, विहंसत घर परिवार।
अनुशासन के त्याग के ज्वालामय संसार ॥3॥
अंधकार में राह के भूले ना परकास।
कुच कुच करिया रात के, बादो भोर उजास ॥4॥
अपढ़ अनाड़ी लोग के, गांव नगर भरमार।
कहे लोग जनतंत्र के, जाहिल के सरकार ॥5॥
अपराधी आतंक से, दुनिया भले तबाह।
आरोही ना मिल सके, आतंकी से राह ॥6 ॥
अरुण अधर मुस्कत रहे, रोजे भोरम भोर।
आरोही के आँख में, संध्या लावे लोर ॥7॥
असुरक्षा के दायरा, होत तंग से तंग।
सासक सब महफूज बा, हत्यारन के संग ॥8॥
आँखिन पर पर्दा पड़ल दिल दिमाग बिकलांग।
अपने हाथे मारि के, काटे आपन टांग ॥9॥
आरोही आपन रहे, भइल पराया आज।
सूर, ताल, लय, छन्द, रस, बदल गइल सब साज ॥10॥
आरोही अविवेकता, प्रभुता अउरी अर्थ।
विद्यमान यौवन रहे, करे महान अनर्थ ॥11॥
आरोही गजबे मिल पानी के तासीर।
बढ़ते लीले गांव घर, घटे खेत दे चीर ॥12॥
आरोही जे झेल ले, हर आंधी तूफान।
समय साथ बांचल रहे, रचना बने महान ॥13॥
आरोही नाटक सही, सच्चा जीवन खेल।
समरसता पैदा करे, जाति धर्म के मेल ॥14॥
आरोही ममता मिले, धुआ काजल होत।
रहे आंख के किरकिरी, देत आँख के जोत ॥15॥
आरोही बर्बर बनल होखे बदे महान।
पूर्वज के आदर्श के समुझ गलत बेजान ॥16॥
आरोही सुविधा बदे, टूटे शासक लोग।
कलाकार ना टूट सके, लाखो विपदा भोग ॥17॥
ऊपर नीचे देख लीं, तबे उठाई पांव।
बिना पात के गांछ ना, आरोही दी छांव ॥18॥
कारन बने विनाश के, तबो रुप के दास।
धरा रक्त रंजित करे, साक्षी बा इतिहास ॥19॥
कांट कूश दलदल मिल, काहे होत उदास,
आरोही पतझड़ बिना आई ना मधुमास ॥20॥
काजल कमरा भीतरे, जाइब पाइब दाग।
सातो सागर साथ मिल गोरा करे ना काग ॥21॥
गांव सभा के ना मिल, आरोही अधिकार।
धरती पर ना आ सकी, जनतंत्री सरकार ॥22॥
घर पर धावा बोलके मार रहल बनिआर।
अन्हरा, बहिरा, गूंक बन, मौन रहत संसार ॥23॥
दवा, बीज, पानी करे, ठीक समय पर काम।
रती भर के बात ला, करीं सड़क मत जाम ॥24॥
पर उपकार भुलाई के, स्वारथ के बन दास।
धर्म ढोंग तीरथ, बरत, योग जाप उपवास ॥25॥