भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कैकयी कोसिला संवाद / गोर्वर्द्धन सिंह
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:59, 25 अगस्त 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गोर्वर्द्धन सिंह |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पन्ना बनाया)
1.
कहली कोसिला कैकयी बहिनी,
हई कइसन तू जिदिया धयिलू॥
बरके बरछी खोभलू छतिया,
अपनो मंगिया कोइला कइलू॥
बन खेदि के राम सिया लछुमन,
कई जोगी भरत दीकिया गइलू।
डहकेला अवध विथिकल सगरो,
अइसन तू निरमोहिया भइलू॥
2.
युवराज बनाइती तिलक दे भरत,
नन्दी वन धुईं रमावे न देती।
पुतरी सिय राम लखन नैना,
तन मन वन-वन कलपाने व देती॥
विरहि ऊरमिल कुहुके निसिदिन,
ओबरी में बइठ छछनाये न देती।
अबहिं राऊ न जइते सरग,
हम अजुए मांग धोवाये न देती॥
3.
बगिया गह-गह रघुवंश के ऊपर,
सुखे बजर घहराइत नाहीं।
फहरात धजा जगति रघुकुल,
छन में अबहिं भइराइत नाहीं॥
अबहिं राउ से साथ छुटत नाहीं,
करनी कइलू जइसन कैकयी,
इतिहास ओ के दोहराइत नाहीं॥