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स्मृतिकण / भगवतीचरण वर्मा

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क्या जाग रही होगी तुम भी?
निष्ठुर-सी आधी रात प्रिये! अपना यह व्यापक अंधकार,
मेरे सूने-से मानस में, बरबस भर देतीं बार-बार;
मेरी पीडाएँ एक-एक, हैं बदल रहीं करवटें विकल;
किस आशंका की विसुध आह! इन सपनों को कर गई पार

मैं बेचैनी में तडप रहा; क्या जाग रही होगी तुम भी?
अपने सुख-दुख से पीडित जग, निश्चिंत पडा है शयित-शांत,
मैं अपने सुख-दुख को तुममें, हूँ ढूँढ रहा विक्षिप्त-भ्रांत;
यदि एक साँस बन उड सकता, यदि हो सकता वैसा अदृश्य

यदि सुमुखि तुम्हारे सिरहाने, मैं आ सकता आकुल अशांत
पर नहीं, बँधा सीमाओं से, मैं सिसक रहा हूँ मौन विवश;
मैं पूछ रहा हूँ बस इतना- भर कर नयनों में सजल याद,
क्या जाग रही होगी तुम भी?