ऊहो बरखा आई / सत्यनारायण लाल
आइल बरखा आइल!
रिमझिम परल फुहार जगत के धधकत हिया जुड़ाइल,
लौटल भाग सोहागिन धरती के, परती हरिआइल,
नाचल वन में मोर, पिआसल जिया-जन्तु अगराइल,
पनपल-पसरल घास-फूस सब, ठूँठो अब अुसिआइल,
बाकिंर चुअत मड़इया में अकसरि तिरिया घबराइल,
पति परदेसी, आँचर तर लइका बेमार सँकाइल,
आइल बरखा आइल!
कतहूँ महल-अटरिन्ह से कजरी के धुनि आवत बा,
केहू मातल पुरवा से बरखा के गुन गावत बा,
पिच पर कार चला के केहू पिकनिक चलल मनावे,
रोज कमा के खाए वाला बरखा के गरिआवे,
केहू आज धधाइल, बाकिर केहू बा जहुआइल,
केहू बा हरिआइल, बाकिर केहू बा पिअराइल,
आइल बरखा आइल!
हमरा चाहीं ऊ बरखा जे सब में जान जगा दे,
टीला ढाहि भरे जे गड़हा, जे सब भेद भगा दे,
धाने में ना हिंगुओ में जे पतई नया उगा दे,
जे दूरंगी चाल चले ना, केहू के न दगा दे,
गरजत बा आकास बुझाता ऊहो बरखा आई,
बाघ-हरिन आ मोर-साँप जब मिलि के कजरी गाई
उहो बरखा आई!