खेत आ किसान / बैद्यनाथ पाण्डेय 'कोमल'
गाँव के किसनवाँ के खेतवे बा सब कुछ-रे
खेतवे में रतिया बिहान।
खेतवे में जिअनी, मरनियों बा खेतवे में
खेतवे रे बाटे शान-मान।
देखि के किसनवाँ के खेतवा उमडि़ आवे।
हँसि उठे खेतवा के घास।
घसिया के लहसत देखि के किसनवाँ के
मनवाँ में जागेला हुलास।
खेतवा किसनवाँ के जान बा, किसनवाँ रे
एहि सब खेतवा के जान।
भोरवो के खेतवे में, खेतवे में संझिओ रे
नहीं कबो खेत बिन चैन।
खेतवे सुतत खानी, खेतवे जागत खानी
खेतवे रे भर दिन-रैन।
सब कुछ छूटि जाय पर ना किसनवाँ के
छूटे कबो खेतवा के ध्यान।
खेतवा किसनवाँ के नेह अनमोल बा रे
दूनो के बा नेहवा अटूट।
कबहूँ ना प्रेम छूटी, कबहूँ ना नेह छूटी
चाहे जाय जिनगी ई छूट।
एक बाटे मानुस, दूसर बाटे मटिया रे
दूनो के बा बाकी एक प्रान।
छोडि़ के किसनवाँ के केई जान पाई सब
खेतवा के मनवाँ के बात?
खेतवे पियासे कब, खेतवा भुखासे कब
दोसरा के कबो ना लखात।
कब हँसे, कब रोये खेतवा के अरिया रे
केई कर पायी अनुमान?
खेतवे के दुखवा में दुख बा किसनवाँ के
खेतवे के सुख में बिहार।
खेत भाई-बाप-बेटा, खेतवे के मटिया में
उमगे किसनवाँ के प्यार।
खेतवा-बधरिया के अरिया के परिया में
दुनिया बसावेला महान।
चाहे होखे जेठ, चाहे जाड़-बरसात होखे
सब घरी खेतवा में रंग।
रंग से रंगल देखि खेतवा के अंगना रे
घटे ना किसान के उमंग।
कविता के रस उमड़त बाटे खेतवा में
कवि बन जात बा किसान।
गाँव के किसनवाँ के खेतवे बा सब कुछ रे
खेतवे में रतिया बिहान।