भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चाहे ई जान रही... / महेन्द्र गोस्वामी

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:30, 6 सितम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} {{KKCatBhojpuriRachna}...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

होखत जे आ रहल बा, होखे ना अब दिआई।
चाहे ई जान रही चाहे ई जान जाई।।
अधिकार सब गँवा के, जियला में का रखल बा,
दुःख कुल्ही हमरे नामें, सुख तहरे सब दखल बा,
ई बाँट बानर लावल, फिर से सुनऽ बँटाई।
चाहे ई जान रही, चाहे ई जान जाई।।
बरखा लहर-पाला में, खाने-खेते खटीला,
चाहे अंगार बरखो, तिल भर नाहीं हटीला,
महलम से झाँक करके, लिहल मजा बुझाई।
चाहे ई जान रही, चाहे ई जान जाई।।
चाहऽ अगर भलाई, सुख देश आ धरा के,
जीअ आ हमहूँ जीहीं, रस्सी नियन बरा के,
थरती आ धन ह सबके, कबले कहऽ बुझाई।
चाहे ई जान रही, चाहे ई जान जाई।।