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दउरत-दउरत जिनिगी भार हो गइल / विजेन्द्र अनिल

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दउरत-दउरत जिनिगी भार हो गइल,
भोरहीं में देखिलऽ अन्हार हो गइल।
केकरा के मीत कहीं, केकरा के दुश्मन,
बदरी में सभे अनचिन्हार हो गइल।
पुरवा के झोंका में गदराइल महुआ,
अचके में पछुआ बयार हो गइल।
दरिया में कागज के नाव चलि रहल,
गड़ही के पानी मँझधार हो गइल।
रेत के महल इहास बन्हले बा,
तुमड़ी के भाग, ऊ सितार हो गइल।
कतना उठान भइल दुनिया के,
प्रेम आउर कविता जेवनार हो गइल।