वापसी / भूपिन्दर बराड़
उखड़ी नींद और ठिठुरन लिए
पुराने जंग लगे चाकू सी
रेल गुज़रती है कोहरे से
गुज़रती है चीख़ती हुई
पलकविहीन पत्थरों के बीच
दिसंबर आने से पहले जो पानी थे
नीला साफ़, थरथराता हुआ
मैं आता हूँ
खून से लथपथ चादर पर लेटे
अपने पिता के क़रीब
आता हूँ
अपने अजन्मे बच्चे की माँ से बहुत दूर
दुकानों की चमकती खिड़कियों के सामने
जहाँ वह मंडराती होगी अविश्वस्त क़दमों से
बहुत दूर उस महानगर से
एक आशाहीन रिश्ते में फंस गया था जिससे
उस सब से बहुत दूर
मैं आ गया हूँ
जूतों के गीले तलुओं में
लगभग भूल चुके प्लेटफ़ार्म को महसूस करता
मुझे छूता है स्टेशनमास्टर का बंद कमरा
छूती है बाहर लगी बंद बड़ी घड़ी
जो कुली यहाँ नहीं हैं, वे सब
अपने ठंडे हाथों से
मुझे थपथपाते हैं
मैं आ ही गया उसी क़स्बे में
जिसे जागना बाक़ी है अभी
उठो, देखो तो, मैं आ गया हूँ
तुम सो जाते हो शाम छह बजे
और उठते नहीं अगली दोपहर तक
उठो, अपना झुर्रियों भरा मुंह खोलो
जमाई लो
मुझे देखो
मैं आ गया हूँ तुम्हारे बीच
तुम्हें जानता हुआ
पुराना क़स्बा सो रहा है
सिर्फ टिकट कलेक्टर
अपना मैला हाथ बढ़ाता है ऊंघता हुआ
मटमैली दाढ़ी नहीं थी उसकी
जब मैं छोड़ गया था
नहीं जाने दिया था उसने
मुझे अपने तेहरवें वर्ष में
पीट निकाला था शंट किये डिब्बे से
जिसके चलने का मुझे इंतज़ार था
भूख से मैं बेहाल था
मुझे उसके चलने का इंतज़ार था
चलने के लिए आगे बढ़ते हैं रिक्शे वाले
मुझे कहीं भी ले जाने को तैयार
कहाँ चलना है बाबूजी
वे सब पूछते हैं
जाना कहाँ है
पानी की टंकी वाले क्वार्टरों में साहब?
इत्ती बड़ी लगती थी पानी की टंकी
हमेशा चूती रहती
दूर तक सुन पड़ती थी उसकी
टपटप की आवाज़ गर्म रातों में
पिता के साथ सैर के लिए मैं जब निकलता था
छावनी, छावनी, छावनी
रिक्शे वाले चिल्लाते हैं
छावनी के रास्ते में बरगद का पेड़ था
आधी रात जहाँ भूतों का बसेरा होता
भूत उस युवा पत्नी का
जिसकी हत्या कर दी गयी
भूत उस हत्यारे सैनिक का
जिसने आत्महत्या की दूसरी गोली से
भूत बसते थे
और वहां कोई नहीं जाता था
सिर्फ आवारा कुत्ते वहां सोते थे
गर्मियों की दुपहरियों में
मैं उन्हें कहता हूँ चला जाऊंगा मैं
मुझे नहीं चाहिए कुछ भी, तुम जाओ
ठंड में डबडबाई आँखों से
मैं कहता हूँ - जाओ !
मैं आता हूँ शहर के द्वार पर
न राजा रहे न द्वारपाल
आज़ादी का परचम यहाँ फ़हराया था
वह भी नहीं
सो रहा है शहर
अँधेरी सुनसान सड़क पर
अपने क़दमों की आवाज़ सुनता
मैं ठिठकता हूँ शहर में घुसते हुए
कमेटी के नल के नीचे उस नुक्कड़ में
एक पागल ठिठुरता हुआ नहाता था
अपनी हंसी और रोने से
हम बच्चों को बहुत डराता था
हम भाग कर पार करते थे यह नुक्कड़
कमेटी का नल अब जहाँ नहीं है
मैं गुजरता हूँ स्कूल के सामने से
जो नहीं है
मैं देखता हूँ जेबों में हाथ डाल
जेबों में चिपचिपी गच्चक नहीं है
नहीं हैं रंगों के खड़ियां
गाड़े नए रंगों में पोत दिया गया
बस बचा है पुराना घंटाघर, झुका हुआ
बुआ की शादी पर नए वस्त्रों में झेंपते
लाठी पर झुके मेरे दादा की तरह
चीज़ें रुकती नहीं बाबा
बहुत कुछ बदल जाता है
अगर मैं खो नहीं गया हूँ
तुम्हारी याददाश्त की
धुंधली होती गलियों में
तो बदल गए उस सब में से एक
मुझे स्वीकार करो
घर के सामने मैं रुकता हूँ सर झुकाए
फिर दरवाज़ा खटखटाता हूँ तीन बार
सांस रोके सुनता हूँ दूसरी ओर
जैसे माँ के बूढ़े क़दमों की आवाज़