अकेली औरत
नींद को पुचकारती है
दुलारती है
पास बुलाती है
पर नींद है कि रूठे बच्चे की तरह
उसे मुँह बिराती हुई
उससे दूर भागती है
अपने को फुसलाती है
सन्नाटे को निहोरती है
देख तो -
कितना खुशनुमा सन्नाटा है
कम से कम
खर्राटों की आवाज से तो बेहतर है
लेकिन नहीं...
जब खर्राटे थे
तो चुप्पी की चाहत थी
अब सन्नाटा कानों को
खर्राटों से ज्यादा खलता है |
सन्नाटे में
सन्नाटे का संगीत सुनना चाहती है
अकेली औरत
पर आलाप को
कुछ ज्यादा ही लंबा खिंचते देख
उसकी अनझपी पलकें
खिड़की से बाहर
आसमान तक की दूरी तय करती हैं
और सितारों के मंडल में
अपने लिए एक सवाल खोज लेती है
जिसका जवाब ढूँढ़ते ढूँढ़ते
चाँद ढलान पर चला जाता है
सुबह का सूरज जब
आसमान के कोने से झाँकने की
कोशिश कर रहा होता है
अकेली औरत की बोझिल पलकें
आसमान पर लाली बिखरने से पहले
मुँदने लगती हैं
रोज की तरह
वह देर सुबह उठेगी
रोज की तरह
अपने को कोसेगी
कि आज भी उगता सूरज देख नहीं पाई...