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बाज़ार से हम बच नहीं सकते / प्रताप सहगल
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बाज़ार से हम बच नहीं सकते
और जो राहें निकालीं
पूर्वजों ने राहें जो मंगल भरी हैं
उन अलक्षित रास्तों से
हट नहीं सकते
बाज़ार से भी बच नहीं सकते।
डाल पर बैठे
कला का टोप पहने
झूलती है डाल
इस छोर से उस छोर तक
साधना है संतुलन
क्या है ज़रूरी?
साधना या संतुलन
गंतव्य तो हर राह का
कोई इधर, कोई उधर है
कौन सा गंतव्य किसका
किसी पेड़ की छाया है किसकी
कौन सा पानी किधर का रुख करेगा
धूप का वह कौन सा टुकड़ा
किसी को क्यों मिलेगा
कुछ भी न निश्चित
समुद्र के अंदर है हलचल
बाहर सिर्फ़ उठते पिरामिड
प्रश्न करते
और मिटते
समंदर की गहरी हलचलों से
कट नहीं सकते
और हम बाज़ार से भी बच नहीं सकते।