भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कबूतर और मैं (2) / प्रताप सहगल

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:51, 28 सितम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रताप सहगल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरे घर के बड़े से ड्राइंग-रूम के बाहर
एक मध्यम कद का
कूलर टँगा है
गर्मियों की तपन को
सोख कर हलकी-हलकी
ठंडी थपकियाँ देता है
यह मध्यम कद का कूलर।
सर्दियाँ जब उतरती हैं
आँगन में तो इसे
झाड़-बुहार कर
वहीं छोड़ दिया जाता है
कि यह भी आराम करेगा
अगली गर्मियाँ उतरने तक।
होली निपटते ही
हर साल की तरह
इस बार भी गर्मी
दरवाज़े के बाहर बैठी है
इस इंतज़ार में कि
मैं कब दरवाज़ा खोलूँ
और वह
ड्राइंग-रूम के सोफों पर
पसर जाए।
न भी खोलूँ दरवाज़ा
तब भी वह दरवाज़ों की चीथों से
प्रवेश कर ही लेगी
तैयारी ज़रूरी है कि
उसे घर में आराम से बिठा सकूँ
ज़रूरी है कि आराम फरमाते
मध्यम कद कूलर को समझाऊँ
कि उसके हरकत में आने का
समय आ गया है
जाता हूँ मैं उसके पास
यही बात समझाने कि
लो वहाँ एक कबूतरी ने
बसेरा कर लिया है
कुछ तिनकों की सेज बिछाकर
उसे सेज पर दो
छोटे-छोटे अंडों में
करवट लेने को तैयार हो रहे हैं
दो जीवन
गर्मी की जगह अब
यह चिंता सताने लगी है
क्या होगा इन अंडों में
धड़कते जीवन का?