कबूतर और मैं (4) / प्रताप सहगल
आज शाम
कबूतरी उस मध्यम कद कूलर की
छत पर आ बैठी है
उसकी नज़र है मेरी तरफ
मैं मशगूल दिखते रहना चाहता हूँ
अपनी किताब के साथ कि
वह बेख़ौफ़
अपने आशियाने में दाखि़ल हो जाए
उसकी निगाह मेरी ओर है
मैं उसे नज़र उठाकर देखता हूँ
उसकी रत्ती भर आँख में
स्नेह का अपार समुद्र है
इतनी छोटी सी आँख में
लहराता हुआ इतना बड़ा समुद्र
पहले मैंने कभी नहीं देखा।
वह लगातार मुझे देख रही है
शायद आश्वस्त होना चाहती है
कि अपने बच्चों के पास
जाने से पहले
कोई देख तो नहीं रहा
उसके घर का ठिकाना
कोई कव्वा
कोई बिल्ली या कोई आदमी
बड़े जतन से बडे़ हो रहे बच्चों को
सँभालकर रखे है कबूतरी
मैंने मुल्तवी कर दी है
कूलर की साज-सफ़ाई
और रहूँगा प्यारी गर्मी के साथ
जब तक है वहाँ
एक माँ और दो बच्चे।