भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कबूतर और मैं (4) / प्रताप सहगल

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:52, 28 सितम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रताप सहगल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज शाम
कबूतरी उस मध्यम कद कूलर की
छत पर आ बैठी है
उसकी नज़र है मेरी तरफ
मैं मशगूल दिखते रहना चाहता हूँ
अपनी किताब के साथ कि
वह बेख़ौफ़
अपने आशियाने में दाखि़ल हो जाए
उसकी निगाह मेरी ओर है
मैं उसे नज़र उठाकर देखता हूँ
उसकी रत्ती भर आँख में
स्नेह का अपार समुद्र है
इतनी छोटी सी आँख में
लहराता हुआ इतना बड़ा समुद्र
पहले मैंने कभी नहीं देखा।
वह लगातार मुझे देख रही है
शायद आश्वस्त होना चाहती है
कि अपने बच्चों के पास
जाने से पहले
कोई देख तो नहीं रहा
उसके घर का ठिकाना
कोई कव्वा
कोई बिल्ली या कोई आदमी
बड़े जतन से बडे़ हो रहे बच्चों को
सँभालकर रखे है कबूतरी
मैंने मुल्तवी कर दी है
कूलर की साज-सफ़ाई
और रहूँगा प्यारी गर्मी के साथ
जब तक है वहाँ
एक माँ और दो बच्चे।