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तोता और आज़ादी / प्रताप सहगल

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सुबह-सवेरे लौट रहे थे
घूम-घाम कर
हम दोनों
कि पत्नी को अचानक ब्रेक लगा
और वो देखने लगी
साइकिल पर दूध की थैलियाँ लादे
और हाथ में नीम की टहनी पकड़े
एक किशोर को।
हमने भी उसकी निगाह से देखा।
नीम के मोटे तने की
फटी बिवाइयों में अपने पंजे गड़ाए
एक छोटे से तोते को।
ऊपर बिजली की तार पर बैठे थे
एक लंबी कतार में कव्वे
कर रहे थे काँव-काँव
और वह छोटा सा तोता
सहमा हुआ गड़ाए जा रहा था
अपने पंजे उस सख़्त तने में।
वह बना रहा था कवच उस तने को
नहीं जानता था वो मासूम तोता
कि उसका शरीर कवच से बाहर था
सिर्फ़ हमारी उपस्थिति ही रोक रही थी
कव्वों को बहेलिया बनने से
पत्नी ने ममता का आँचल खोलकर
उठा लिया उसे छोटे से तोते को।
तोता टाँव-टाँव कर रहा था
नहीं समझ रहा था तोता कि
आँचल में आना एक सहम से मुक्ति थी
या किसी दूसरे खतरे के द्वार में प्रवेश
तोता सहमा हुआ था अभी भी
और हम जानते थे कि
उसे छोड़ते ही कव्वों या फिर
किसी बिल्ली का आहार होगा।
हम तोते को घर ले आए
पानी परोसा और हरी मिर्च तथा हरा धनिया
रखा उसके सामने
वह अभी बाहर नहीं निकला था सहम के चैंबर से
कि उसकी आज़ादी के परों को भी
कर लिया गया कै़द
द्वार खोल दो
कहा मैंने और तोते को फिर
पानी पिलाना चाहा
तोते ने पानी नहीं पिया
ना खाई हरी मिर्च या धनिया
वह पहला अवसर पाते ही
द्वार से बाहर उड़ गया
अपने आज़ाद लोक में।
हम दोनों अवाक् थे।