भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पता ना केने से टकरा के हवा आइल बा / रिपुसूदन श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:36, 1 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रिपुसूदन श्रीवास्तव |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पन्ना बनाया)
पता ना केने से टकरा के हवा आइल बा,
फेर उहे गन्ध सांस-सांस में समाइल बा
आज का बात ह बन-ठन दुआर पर हमरा,
भोरे-भोरे बेबोलवले बहार आइल बा
रतन ह रुप के आकि सनेह के सोना,
आकि खुद चाँद तलैया में उतर आइल बा
दूभि के पात में छिपल बा ओस के मोती,
बनके चितचोर केहू आँखि में लुकाइल बा
मुए का बात से दुनियां बेकार डेरवावे,
एहसे का कम इहाँ जी-जी के चोट खाइल बा
हमरा त मौत से शिकवा ना कुछ शिकायत बा,
खुद ई जिनगी जब बगावत पर उतर आइल बा।
जब ले दरदल ना हिया सिरिजना भइल ना कभी,
लोर का जोर पर हर गीत मुस्कुराइल बा।