कोई साया न शजर याद आया
थक गए पाँव तो घर याद आया
खिल उठे फूल से सहराओं में
फिर वो फ़िरदौस-ए-नज़र याद आया
फिर मेरे पाँव में ज़ंजीर पड़ी
फिर तेरा हुक्म-ए-सफ़र याद आया
लौट जाने को बहुत दिल मचला
क्या पस-ए-गर्द-ए-सफ़र याद आया
सारी उम्मीदों ने दम तोड़ दिया
नख़्ल-ए-बे-बर्ग-ओ-समर याद आया
लाख चाहा था के वो चश्म-ग़ज़ाल
फिर न याद आए मगर याद आया
ख़्वाब और आलम-ए-बे-दारी में
रेत पर रेत का घर याद आया
मर्सिया दिन का लिखा था ‘राशिद’
शब को उनवान-ए-सहर याद आया