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नींद आँखों में मुसलसल नहीं होने देता / रेहाना रूही
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नींद आँखों में मुसलसल नहीं होने देता
वो मिरा ख़्वाब मुकम्मल नहीं होने देता
आँख के शीश-महल से वो किसी भी लम्हे
अपनी तस्वीर को ओझल नहीं होने देता
राब्ता भी नहीं रखता है सर-ए-वस्ल कोई
और तअल्लुक़ भी मोअŸाल नहीं होने देता
वो जो इक शहर है पानी के किनारे आबाद
अपने अतराफ़ में दलदल नहीं होने देता
जब कि तक़्दीर अटल है तो दुआ क्या मअ’नी
ज़हन इस फ़लसफ़े को हल नहीं होने देता
दिल तो कहता है से लौट के आना है यहीं
ये दिलासा मुझे पागल नहीं होने देता
क़र्या-ए-जाँ पे कभी टूट के बरसें ‘रूही’
ज़र्फ़ अश्कों को वो बादल नहीं होने देता