मुट्ठी भर बर्फ / प्रताप सहगल
कोई भी मुट्ठी भर बर्फ को
पहाड़ से नीचे फेंक देता है
और मुट्ठी भर बर्फ
खण्ड-खण्ड होकर बिखर जाती है.
मेरी आंखों में तैरते हुए विशालकाय समुद्र
सूख जाते हैं
और मेरे पूरे त्वचा प्रदेश पर
यूकलिप्टस के पेड़ उग-उग कर
टूट जाते हैं.
किसी अनाम दर्द से दुखने लगते हैं
मेरी उंगलियों के पोर
मस्तक के पहाड़
और उड़ने लगती हैं शिराएं छितरी-छितरी सी.
तभी कोई तारा टूटकर
मेरे सिर पर गिर पड़ता है
न जाने गुज़र जाता है किस ओर.
मैं देख नहीं पाता
पर मेरे लैंसों पर
अनेक तारों के चित्र खिंच जाते हैं
और मैं उन्हें गिनने के प्रयास में
लैंस को बेपर्दा कर देता हूं.
मेरे सिर पर न जाने कौन गाड़ जाता है
झंडे
और झंडो की फड़फड़ाहट डूबती हुई
चन्द नारों की आवाज़ में
सिसकियाँ भरती है
उन सिसकियों से उभरते हुए
राष्ट्रीय सम्मान के अश्लील चित्र
मुझे करते हुए अनावृत्त
पूरे आसमान पर फैल जाते हैं
मैं बेशर्म
खण्ड-खण्ड बिखरा रहता हूं.
प्याज़ के छिलके उतरते-उतरते
बू सब जगह फैल जाती है
जब-जब भी मैं जोड़ने लगता हूं
अपने प्याज़ के छिलकों को
तभी मुट्ठी भर बर्फ को
कोई भी पहाड़ से नीचे फेंक देता है
और मुट्ठी भर बर्फ
खण्ड-खण्ड होकर बिखर जाती है.