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चौराहे आदमी और बत्तियां / प्रताप सहगल

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मेरे जीवन के विविध रंगों की ओर करती हैं संकेत
चौराहों पर जलती-बुझती
लाल, पीली, हरी बत्तियां
और जलने-बुझने का उपक्रम
मेरे होने न होने के साथ जुड़ जाता है.
चौराहों पर
लटकते और नृत्य करते हुए
छोटे-बड़े हाथ
मेरी संचालन-क्रियाओं का करते हैं निर्माण
बन्द मुट्ठियां मुझे जकड़ लेती हैं
और मैं सिमट कर उलूक सा बन्द हो जाता हूं.
आवाज़ें, चीखें और अस्पष्ट ध्वनियां
जो मेरी नहीं हैं
हुजूम बनकर मेरा पीछा करती हैं
और मुझे भी बना देना चाहती हैं
मात्र एक आवाज़ , चीख या कोई अस्पष्ट ध्वनि
सड़कों पर बिछे हुए अनावृत्त आवरण
मुझे आवृत्त करने की प्रक्रिया में व्यस्त
उठ-उठ कर उछलते हैं
मुझे पकड़ने का करते हैं प्रयास
और निश्चेष्ट होकर
अन्धेरों में डूब जाते हैं.
समय की उपेक्षा में रत लोग
मुझे मानव-कल्याण का देते हैं उपदेश
और स्वयं अन्धेरी खोहों में डूब जाते हैं
'बड़ा होने' का दम्भ ओढ़कर
बनाते हैं यूतोपियाई योजनाएं
और शराब, चरस या अफीम में डूब कर
उन्हें देते हैं आकार
किसी उपाधि के न मिलने के ग़म को
पाइप के धुँए के साथ उड़ाकर
निस्पृही कहलाने के अधिकारी
कुछ और नए दावों को तलाशते हैं
और बत्तियां क्रम से
करती हैं केवल संकेत.
बुझती हुई-जलती हुई
जलती हुई-बुझती हुई.