इन्तजार और अभी / प्रताप सहगल
मुझे याद है वो क्षण
जिस क्षण तुम्हारे चेहरे पर सूरज उग गया था
और ओस के छोटे-छोटे कण चमक कर
मुझे निमंत्रण दे रहे थे.
मुझे याद है वो क्षण
जब तुम्हारे माथे का गोल टीका मुझे देख रहा था
और तुम्हारे होंठों का सूखापन
मुझसे कुछ माँग रहा था.
मुझे याद है
कि तुम्हारे दोनों गोल अंग
अपनी गोलाइयों से भरकर
बड़ी तेज़ गति से क्रियाशील थे
और तुम्हारे कोमल हाथों का
गर्म और गहरा दबाव
मुझे अपने में भर लेना चाहता था.
मुझे यह भी याद है
कि तुम्हारे अन्दर एक तेज़ धारा का बहाव था
उसमें सीमाओं का कटाव था
पर तुम्हारी झुकी आँखों के निमन्त्रण ने
बहा दिया था उन कटावों को
पत्ते सी हवा में उड़ी जा रही थीं तुम
मैं नहीं भूल सकता
कि वो क्षण मेरे लिए कुछ लेने का नहीं
देने का था
पर मैंने क्या दिया, क्या लिया
अभी तक भी यह सोचकर होता है रोमांच
और तुम्हारे चेहरे पर उगा हुआ सूरज
मुझे निरन्तर अपनी ओर बुला रहा है
ओस कणों से भीगी लटों ने
मुझे हर ओर बांध लिया था
फिर भी जैसे मैं अभी तक
किसी प्रतीक्षा में हूं.