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किसलिए? / प्रताप सहगल

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किसलिए लिखते हैं
हम कविता
बनाते हैं चित्र या बुत
तानते हैं
कोई तान
रचते हैं
मूल्यों के स्वप्न
आखिर किसलिए?

फटेगा कहीं कोई पटाखा
और हम लुढ़क जाएंगे बनकर तमाशा
तमाशा
जिसका नहीं होता कोई दर्शन
या फिर
कहीं कोई छोड़ देगा
सांस पर फैलती कोई गैस
या कोई आग
और हम
सोते-सोते
अपनी कल्पनाओं के महल
ध्वस्त करते हुए
निकल जाएंगे
कभी न लौट सकेंगे हम
तब
किसलिए रचते हैं हम
किसलिए करते हैं सृजन
मुझे गारन्टी दो
नहीं टूटेगा
मेरे स्वप्नों का
आकाश!
मेरे बच्चों के बच्चे
उनके बच्चे
और उनके बच्चे
उन बच्चों के बच्चे
और कभी खत्म न होने वाला
यह अनवरत सिलसिला
चलता रहेगा
बेवकूफी लगेगी आपको यह सब
पर
आज आमादा हूं
कोई फैसला लेने पर।

बन्द करने होंगे
यह साहित्य, संस्कृति
और सभ्यता के नाटक
या फिर
तय करना होगा
आदमी का आदमी होकर ज़िन्दा रहना
आदमी की नियति
नहीं है कैद किसी
रचना करते हाथों में
रचना करता हाथ
नहीं खोदता
आदमी की कब्र
तामीर करता है
वह
आदमी होने का महल
मंज़िल-दर-मंज़िल

मुझे आश्वस्त करो
मेरे पाठको
या श्रोताओ
दार्शनिको या राजनीतिज्ञो !
कि नहीं उखड़ेगा
आदमी का पांव
आदमी होने की नींव से
तभी
तभी तो
बनेगी रचना की इमारत
पहचान इमारत की
कारीगर के कौशल से नहीं
आदमी के
आदमी होने से होगी।

1984